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शबाब-ए-होश कि फ़िल-जुमला यादगार हुई - फ़ानी बदायुनी कविता - Darsaal

शबाब-ए-होश कि फ़िल-जुमला यादगार हुई

शबाब-ए-होश कि फ़िल-जुमला यादगार हुई

जो उम्र सर्फ़-ए-तमाशा-ए-हुस्न-ए-यार हुई

हिसाब-ए-हसरत-ए-जुर्म-ए-नज़ारा दिल से पूछ

नज़र तो एक झलक की गुनाह-गार हुई

बिसात-ए-अज्ज़ में इक आह थी मता-ए-हयात

सो वो भी सर्फ़-ए-सितम-हा-ए-रोज़गार हुई

ब-क़द्र-ए-हस्ती-ए-दिल है ख़ुमार-ए-ग़म बदनाम

ख़िज़ाँ ख़राब ब-अंदाज़-ए-बहार हुई

नहीं कि आह में तासीर ही नहीं लेकिन

ये दिल-फ़िगार कभी आसमाँ-फ़िगार हुई

करम है राज़ उम्मीद-ए-करम की हस्ती का

उम्मीद तेरे करम की उम्मीद-वार हुई

बला से हिज्र में जीने की इंतिहा तो है

वो एक बार हुई या हज़ार बार हुई

अज़ल में ख़ल्क़ हुई थी जो बिजलियों की रूह

तिरी निगाह मिरी जान बे-क़रार हुई

मिरे वजूद की हुज्जत मिरे अदम की दलील

वो इक नज़र थी जो शायद जिगर के पार हुई

बहार नज़्र-ए-तग़ाफ़ुल हुई ख़िज़ाँ ठहरी

ख़िज़ाँ शहीद-ए-तबस्सुम हुई बहार हुई

उम्मीद-ए-मर्ग पे 'फ़ानी' निसार क्या कीजे

वो ज़िंदगी कि हुई भी तो मुस्तआर हुई

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