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नाम बदनाम है नाहक़ शब-ए-तन्हाई का - फ़ानी बदायुनी कविता - Darsaal

नाम बदनाम है नाहक़ शब-ए-तन्हाई का

नाम बदनाम है नाहक़ शब-ए-तन्हाई का

वो भी इक रुख़ है तिरी अंजुमन-आराई का

आ चला है मुझे कुछ वादा-ए-फ़र्दा का यक़ीं

दिल पे इल्ज़ाम न आ जाए शकेबाई का

अब न काँटों ही से कुछ लाग न फूलों से लगाओ

हम ने देखा है तमाशा तिरी रानाई का

दोनों आलम से गुज़र कर भी ज़माना गुज़रा

कुछ ठिकाना भी है इस बादिया-पैमाई का

ख़ुद ही बेताब तजल्ली है अज़ल से कोई

देखने के लिए पर्दा है तमन्नाई का

लग गई भीड़ ये दीवाना जिधर से गुज़रा

एक आलम को है सौदा तिरे सौदाई का

फिर उसी काफ़िर बे-मेहर के दर पर 'फ़ानी'

ले चला शौक़ मुझे नासिया-फ़रसाई का

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