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नहीं मंज़ूर तप-ए-हिज्र का रुस्वा होना - फ़ानी बदायुनी कविता - Darsaal

नहीं मंज़ूर तप-ए-हिज्र का रुस्वा होना

नहीं मंज़ूर तप-ए-हिज्र का रुस्वा होना

तेरे बीमार का अच्छा नहीं अच्छा होना

नासेहा वुसअत-ए-काशाना जुनूँ-ख़ेज़ नहीं

वर्ना क्या फ़र्ज़ है आवारा-ए-सहरा होना

बस अब ऐ ज़ब्त ज़ियादा मुझे महजूब न कर

है मिरी आँख की तक़दीर में दरिया होना

किस से खुलते हैं तिरी ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर के बल

कोई आसान है ये उक़्दा-ए-दिल वा होना

निगह-ए-नाज़ को आसाँ दम-ए-ख़ंजर बनना

लब-ए-जाँ-बख़्श को दुश्वार मसीहा होना

हाए बातों में तिरी लग़्ज़िश-ए-मस्ताना-ए-नाज़

हाए आँखों में तिरी नश्शा-ए-सहबा होना

हमा-तन दाग़-ए-ग़म-ए-इश्क़-ए-बुताँ हूँ 'फ़ानी'

दिल से भाता है मुझे नक़्श-ए-सुवैदा होना

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