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मुझ को मिरे नसीब ने रोज़-ए-अज़ल से क्या दिया - फ़ानी बदायुनी कविता - Darsaal

मुझ को मिरे नसीब ने रोज़-ए-अज़ल से क्या दिया

मुझ को मिरे नसीब ने रोज़-ए-अज़ल से क्या दिया

दौलत-ए-दो-जहाँ न दी इक दिल-ए-मुब्तला दिया

दिल ही निगाह-ए-नाज़ का एक अदा-शनास था

जल्वा-ए-बर्क़-ए-तूर ने तूर को क्यूँ जला दिया

क़ब्र में जब किसी तरह दिल की तड़प न कम हुई

याद-ए-ख़िराम-ए-नाज़ ने हश्र का आसरा दिया

रोज़-ए-जज़ा गिला तो क्या शुक्र-ए-सितम ही बन पड़ा

हाए कि दिल के दर्द ने दर्द को दिल बना दिया

अब मिरी लाश पर हुज़ूर मौत को कोसते तो हैं

आप को ये भी होश है किस ने किसे मिटा दिया

दिल में समा के फिर गई आस बंधा के फिर गई

आज निगाह-ए-दोस्त ने काबा बना के ढा दिया

उफ़ कि गुनाहगार हम हैं तो मगर ख़ता मुआफ़

आठ पहर के दर्द ने दिल ही तो है दुखा दिया

आप हम अपनी आग में ऐ ग़म-ए-इश्क़ जल बुझे

आग लगे इस आग को फूँक दिया जला दिया

यूँ न किसी तरह कटी जब मिरी ज़िंदगी की रात

छेड़ के दास्तान-ए-ग़म दिल ने मुझे सुला दिया

गिर्या-ए-आतशीं की दाद दे शब-ए-ग़म तो कौन दे

ख़ुद सर-ए-शाम क्या बुझी शम्अ ने दिल बुझा दिया

यास ने दर्द ही नहीं हक़ तो ये है दवा भी दी

'फ़ानी'-ए-ना-उमीद को मौत का आसरा दिया

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