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मोहताज-ए-अजल क्यूँ है ख़ुद अपनी क़ज़ा हो जा - फ़ानी बदायुनी कविता - Darsaal

मोहताज-ए-अजल क्यूँ है ख़ुद अपनी क़ज़ा हो जा

मोहताज-ए-अजल क्यूँ है ख़ुद अपनी क़ज़ा हो जा

ग़ैरत हो तो मरने से पहले ही फ़ना हो जा

ऐ शौक़-ए-तलब बढ़ कर मजनून-ए-अदा हो जा

ऐ हिम्मत-ए-मर्दाना राज़ी-ब-रज़ा हो जा

आग़ोश-ए-फ़ना में हम परवर्दा-ए-आफ़त हैं

ऐ फ़ित्ना-ए-दौराँ उठ ऐ हश्र बपा हो जा

ज़िद और ये ज़िद ऐ दिल अच्छा तो ख़ुदा-हाफ़िज़

क़ुर्बान ही उस बुत पर होता है तो जा हो जा

उस जान-ए-तमन्ना से बे-पर्दा न शिकवा कर

वो तुझ से ख़फ़ा है तो जीने से ख़फ़ा हो जा

हर क़ाफ़िला-ए-दिल को तू मुज़्दा-ए-मंज़िल दे

हर रहगुज़र-ए-ग़म में नक़्श-ए-कफ़-ए-पा हो जा

ये दर्द-ए-मोहब्बत भी क्या शय है मआज़-अल्लाह

मैं दर्द-ए-मोहब्बत से कहता हूँ सिवा हो जा

ज़ालिम का न शिकवा कर ज़ुल्मों की न परवा कर

तू अपनी वफ़ाओं की इज़्ज़त पे फ़िदा हो जा

इस हस्ती-ए-फ़ानी से कर क़त-ए-नज़र 'फ़ानी'

तू दोस्त का तालिब है दुश्मन से जुदा हो जा

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