मेरे लब पर कोई दुआ ही नहीं
मेरे लब पर कोई दुआ ही नहीं
इस करम की कुछ इंतिहा ही नहीं
कश्ती-ए-ए'तिबार तोड़ के देख
कि ख़ुदा भी है ना-ख़ुदा ही नहीं
मेरी हस्ती गवाह है कि मुझे
तू किसी वक़्त भूलता ही नहीं
अब उसे ना-उम्मीद क्यूँ कहिए
दिल को तौफ़ीक़-ए-मुद्दआ ही नहीं
ग़म में लज़्ज़त कहाँ कि दिल न रहा
हाए वो हसरत-आश्ना ही नहीं
वही तू है वही तिरी महफ़िल
एक 'फ़ानी'-ए-मुब्तला ही नहीं
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