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मर कर मरीज़-ए-ग़म की वो हालत नहीं रही - फ़ानी बदायुनी कविता - Darsaal

मर कर मरीज़-ए-ग़म की वो हालत नहीं रही

मर कर मरीज़-ए-ग़म की वो हालत नहीं रही

यानी वो इज़्तिराब की सूरत नहीं रही

हर लम्हा-ए-हयात रहा वक़्फ़ कार-ए-शौक़

मरने की उम्र भर मुझे फ़ुर्सत नहीं रही

एक नाला-ए-ख़मोश मुसलसल है और हम

यादश-ब-ख़ैर ज़ब्त की ताक़त नहीं रही

वो अहद-ए-दिल-फ़रेबी-ए-तासीर अब कहाँ

मुद्दत से आह आह की हसरत नहीं रही

दिल और हवा-ए-सिलसिला-ए-जम्बानी-ए-नशात

क्यूँ पास-ए-वज़-ए-ग़म तुझे ग़ैरत नहीं रही

हर बे-गुनाह से वादा-ए-बख़ि़्शश है रोज़-ए-हश्र

गोया गुनाह की भी ज़रूरत नहीं रही

ऐ अर्ज़-ए-शौक़ मुज़्दा कि दिल चाक हो गया

तकलीफ़ पर्दा-दारी-ए-हसरत नहीं रही

पथरा गई थी आँख मगर बंद तो न थी

अब ये भी इंतिज़ार की सूरत नहीं रही

इबरत ने बेकसी का निशाँ भी मिटा दिया

उड़ती थी जिस पे ख़ाक वो तुर्बत नहीं रही

महशर में भी वो अहद-ए-वफ़ा से मुकर गए

जिस की ख़ुशी थी अब वो क़यामत नहीं रही

किस मुँह से ग़म के ज़ब्त का दावा करे कोई

ताक़त ब-क़द्र-ए-हसरत-ए-राहत नहीं रही

'फ़ानी' उम्मीद-ए-मर्ग ने भी दे दिया जवाब

जीने की हिज्र में कोई सूरत नहीं रही

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