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ले ए'तिबार-ए-वादा-ए-फ़र्दा नहीं रहा - फ़ानी बदायुनी कविता - Darsaal

ले ए'तिबार-ए-वादा-ए-फ़र्दा नहीं रहा

ले ए'तिबार-ए-वादा-ए-फ़र्दा नहीं रहा

अब ये भी ज़िंदगी का सहारा नहीं रहा

तुम मुझ से क्या फिरे कि क़यामत सी आ गई

ये क्या हुआ कि कोई किसी का नहीं रहा

क्या क्या गिले न थे कि इधर देखते नहीं

देखा तो कोई देखने वाला नहीं रहा

आहें हुजूम-ए-यास में कुछ ऐसी खो गईं

दिल आश्ना-ए-दर्द ही गोया नहीं रहा

अल्लाह रे चश्म-ए-होश की कसरत-परस्तियाँ

ज़र्रे ही रह गए कोई सहरा नहीं रहा

दे उन पे जान जिस को ग़रज़ हो कि दिल के बाद

उन की निगाह का वो तक़ाज़ा नहीं रहा

तुम दो-घड़ी को आए न बीमार के क़रीब

बीमार दो-घड़ी को भी अच्छा नहीं रहा

'फ़ानी' बस अब ख़ुदा के लिए ज़िक्र-ए-दिल न छेड़

जाने भी दे बला से रहा या नहीं रहा

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