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ख़ल्क़ कहती है जिसे दिल तिरे दीवाने का - फ़ानी बदायुनी कविता - Darsaal

ख़ल्क़ कहती है जिसे दिल तिरे दीवाने का

ख़ल्क़ कहती है जिसे दिल तिरे दीवाने का

एक गोशा है ये दुनिया इसी वीराने का

इक मुअ'म्मा है समझने का न समझाने का

ज़िंदगी काहे को है ख़्वाब है दीवाने का

हुस्न है ज़ात मिरी इश्क़ सिफ़त है मेरी

हूँ तो मैं शम्अ मगर भेस है परवाने का

का'बे को दिल की ज़ियारत के लिए जाता हूँ

आस्ताना है हरम मेरे सनम-ख़ाने का

मुख़्तसर क़िस्सा-ए-ग़म ये है कि दिल रखता हूँ

राज़-ए-कौनैन ख़ुलासा है इस अफ़्साने का

ज़िंदगी भी तो पशेमाँ है यहाँ ला के मुझे

ढूँडती है कोई हीला मिरे मर जाने का

तुम ने देखा है कभी घर को बदलते हुए रंग

आओ देखो न तमाशा मिरे ग़म-ख़ाने का

अब इसे दार पे ले जा के सुला दे साक़ी

यूँ बहकना नहीं अच्छा तिरे मस्ताने का

दिल से पहुँची तो हैं आँखों में लहू की बूँदें

सिलसिला शीशे से मिलता तो है पैमाने का

हड्डियाँ हैं कई लिपटी हुई ज़ंजीरों में

लिए जाते हैं जनाज़ा तिरे दीवाने का

वहदत-ए-हुस्न के जल्वों की ये कसरत ऐ इश्क़

दिल के हर ज़र्रे में आलम है परी-ख़ाने का

चश्म-ए-साक़ी असर-ए-मय से नहीं है गुल-रंग

दिल मिरे ख़ून से लबरेज़ है पैमाने का

लौह दिल को ग़म-ए-उल्फ़त को क़लम कहते हैं

कुन है अंदाज़-ए-रक़म हुस्न के अफ़्साने का

हम ने छानी हैं बहुत दैर ओ हरम की गलियाँ

कहीं पाया न ठिकाना तिरे दीवाने का

किस की आँखें दम-ए-आख़िर मुझे याद आई हैं

दिल मुरक़्क़ा' है छलकते हुए पैमाने का

कहते हैं क्या ही मज़े का है फ़साना 'फ़ानी'

आप की जान से दूर आप के मर जाने का

हर नफ़स उम्र-ए-गुज़िश्ता की है मय्यत 'फ़ानी'

ज़िंदगी नाम है मर मर के जिए जाने का

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