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जल्वा-ए-इश्क़ हक़ीक़त थी हुस्न-ए-मजाज़ बहाना था - फ़ानी बदायुनी कविता - Darsaal

जल्वा-ए-इश्क़ हक़ीक़त थी हुस्न-ए-मजाज़ बहाना था

जल्वा-ए-इश्क़ हक़ीक़त थी हुस्न-ए-मजाज़ बहाना था

शम्अ जिसे हम समझे थे शम्अ न थी परवाना था

शोबदे आँखों के हम ने ऐसे कितने देखे हैं

आँख खुली तो दुनिया थी बंद हुई अफ़्साना था

अहद-ए-जवानी ख़त्म हुआ अब मरते हैं न जीते हैं

हम भी जीते थे जब तक मर जाने का ज़माना था

दिल अब दिल है ख़ुदा रक्खे साक़ी को मय-ख़ाने को

वर्ना किसे मालूम नहीं टूटा सा पैमाना था

'फ़ानी' को कैसा ही सही फिर भी तुझी से निस्बत थी

दीवाना था था किस का तेरा ही दीवाना था

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