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हासिल-ए-इल्म-ए-बशर जहल का इरफ़ाँ होना - फ़ानी बदायुनी कविता - Darsaal

हासिल-ए-इल्म-ए-बशर जहल का इरफ़ाँ होना

हासिल-ए-इल्म-ए-बशर जहल का इरफ़ाँ होना

उम्र भर अक़्ल से सीखा किए नादाँ होना

चार ज़ंजीर-ए-अनासिर पे है ज़िंदाँ मौक़ूफ़

वहशत-ए-इश्क़ ज़रा सिलसिला-ए-जुम्बाँ होना

जमा करता हूँ गिरेबाँ के निकाले हुए तार

याद आया है मुझे सर-ब-गरेबाँ होना

दिल बस इक लर्ज़िश-ए-पैहम है सरापा यानी

तेरे आईना को आता नहीं हैराँ होना

फ़ाल-अफ़्ज़ूदनी-ए-मुश्किल है हर आसानी-ए-कार

मेरी मुश्किल को मुबारक नहीं आसाँ होना

राहत-ए-अंजाम-ए-ग़म और राहत-ए-दुनिया मालूम

लिख दिया दिल के मुक़द्दर में परेशाँ होना

दे तिरा हुस्न-ए-तग़ाफ़ुल जिसे है चाहे फ़रेब

वर्ना तू और जफ़ाओं पे पशीमाँ होना

हाए वो जल्वा-ए-ऐमन वो निगाह-ए-सर-ए-तूर

फ़ित्ना-सामाँ से तिरा फ़ित्ना-ए-सामाँ होना

ख़ाक-ए-'फ़ानी' की क़सम है तुझे ऐ दश्त-ए-जुनूँ

किस से सीखा तिरे ज़र्रों ने बयाबाँ होना

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