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हर तबस्सुम को चमन में गिर्या-सामाँ देख कर - फ़ानी बदायुनी कविता - Darsaal

हर तबस्सुम को चमन में गिर्या-सामाँ देख कर

हर तबस्सुम को चमन में गिर्या-सामाँ देख कर

जी लरज़ जाता है इन ग़ुंचों को ख़ंदाँ देख कर

आख़िर आख़िर होश ही वहशत भी था हैरत भी था

दिल को आलम-आफ़रीं सहरा-बद-अमाँ देख कर

शेवा अपना ग़म-परस्ती क़िबला अपना ख़ाक-ए-दिल

रूह-ए-ग़म को पैकर-ए-ख़ाकी में इंसाँ देख कर

हर तसल्ली से सिवा होती गई दिल की तड़प

दर्द कुछ से कुछ हुआ सामान-ए-दरमाँ देख कर

उस को इनआम-ए-ख़ुदी और इस पर लुत्फ़-ए-बे-ख़ुदी

वो करम करते हैं ज़र्फ़-ए-अहल-ए-इरफ़ाँ देख कर

मानी-ए-सूरत में हम ने तेरी सूरत देख ली

तेरी क़ुदरत देख ली इंसाँ को इंसाँ देख कर

क़ब्र-ए-'फ़ानी' पर मैं वो बरचीदा-दामन ऐ नसीम

मुंतशिर कर ख़ाक लेकिन उन का दामाँ देख कर

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