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दिल की तरफ़ हिजाब-ए-तकल्लुफ़ उठा के देख - फ़ानी बदायुनी कविता - Darsaal

दिल की तरफ़ हिजाब-ए-तकल्लुफ़ उठा के देख

दिल की तरफ़ हिजाब-ए-तकल्लुफ़ उठा के देख

आईना देख और ज़रा मुस्कुरा के देख

इस दौर में ये तर्ज़-ए-जफ़ा आज़मा के देख

दिल के बजाए दिल के सुकूँ को मिटा के देख

तस्लीम की नज़र से करिश्मे रज़ा के देख

बेगानगी-ए-दोस्त को अपना बना के देख

इस शोरिश-ए-हयात को हद से बढ़ा के देख

ये फ़ित्ना और हश्र से पहले उठा के देख

यूँ देखता है तीरगी-ए-आब-ओ-गिल में क्या

शोलों से खेल दिल को जला और जला के देख

हर ज़िंदगी का नाम न रख दिल की ज़िंदगी

ईमान ज़िंदगी पे न ला आज़मा के देख

तेरी तजल्लियों से किसी तरह कम नहीं

दिल की तजल्लियों को कभी दिल में आ के देख

अब के अदा-ए-ख़ास से कर इम्तिहान-ए-दिल

जो बर्क़ तूर पर न गिरी हो गिरा के देख

हाँ अहल-ए-दिल के हाल से ग़फ़लत मुहाल है

अच्छा यक़ीं नहीं तो मुझी को भुला के देख

दुनिया को देखना तो मयस्सर नहीं तुझे

ज़र्रे को देखना है तो दुनिया बना के देख

'फ़ानी' सफ़ीना अब भी न डूबे तो क्या करे

तूफ़ान को न देख सितम ना-ख़ुदा के देख

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