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दिल की हर लर्ज़िश-ए-मुज़्तर पे नज़र रखते हैं - फ़ानी बदायुनी कविता - Darsaal

दिल की हर लर्ज़िश-ए-मुज़्तर पे नज़र रखते हैं

दिल की हर लर्ज़िश-ए-मुज़्तर पे नज़र रखते हैं

वो मेरी बे-ख़बरी की भी ख़बर रखते हैं

दर्द में लुत्फ़-ए-ख़लिश कैफ़-ए-कशिश पाता हूँ

क्या वो फिर अज़्म-ए-तमाशा-ए-जिगर रखते हैं

जिस तरफ़ देख लिया फूँक दिया तूर-ए-मजाज़

ये तिरे देखने वाले वो नज़र रखते हैं

ख़ुद तग़ाफ़ुल ने दिया मुज़्दा-ए-बेदाद मुझे

अल्लाह अल्लाह मिरे नाले भी असर रखते हैं

बेबसी देख ये सौ बार किया अहद कि अब

तुझ से उम्मीद न रक्खेंगे मगर रखते हैं

है तिरे दर के सिवा कोई ठिकाना अपना

क्या कहीं तेरे उजाड़े हुए घर रखते हैं

कोई इस जब्र-ए-तमन्ना की भी हद है 'फ़ानी'

हम शब-ए-हिज्र में उम्मीद-ए-सहर रखते हैं

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