बिजलियाँ टूट पड़ीं जब वो मुक़ाबिल से उठा
बिजलियाँ टूट पड़ीं जब वो मुक़ाबिल से उठा
मिल के पल्टी थीं निगाहें कि धुआँ दिल से उठा
जल्वा महसूस सही आँख को आज़ाद तो कर
क़ैद-ए-आदाब-ए-तमाशा भी तो महफ़िल से उठा
फिर तो मिज़राब-ए-जुनूँ साज़-ए-अना-लैला छेड़
हाए वो शोर-ए-अनल-क़ैस कि महमिल से उठा
इख़्तियार एक अदा थी मिरी मजबूरी की
लुत्फ़-ए-सई-ए-अमल इस मतलब-ए-हासिल से उठा
उम्र-ए-उम्मीद के दो दिन भी गिराँ थे ज़ालिम
बार-ए-फ़र्दा न तिरे वादा-ए-बातिल से उठा
ख़बर-ए-क़ाफ़िला-ए-गुम-शुदा किस से पूछूँ
इक बगूला भी न ख़ाक-ए-रह-ए-मंज़़िल से उठा
होश जब तक है गला घोंट के मर जाने का
दम-ए-शमशीर का एहसाँ तिरे बिस्मिल से उठा
मौत हस्ती पे वो तोहमत थी कि आसाँ न उठी
ज़िंदगी मुझ पे वो इल्ज़ाम कि मुश्किल से उठा
किस की कश्ती तह-ए-गिर्दाब-ए-फ़ना जा पहुँची
शोर-ए-लब्बैक जो 'फ़ानी' लब-ए-साहिल से उठा
(837) Peoples Rate This