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अपनी जन्नत मुझे दिखला न सका तू वाइज़ - फ़ानी बदायुनी कविता - Darsaal

अपनी जन्नत मुझे दिखला न सका तू वाइज़

अपनी जन्नत मुझे दिखला न सका तू वाइज़

कूचा-ए-यार में चल देख ले जन्नत मेरी

सारी दुनिया से अनोखी है ज़माने से जुदा

नेमत-ए-ख़ास है अल्लाह रे क़िस्मत मेरी

शिकवा-ए-हिज्र पे सर काट के फ़रमाते हैं

फिर करोगे कभी इस मुँह से शिकायत मेरी

तेरी क़ुदरत का नज़ारा है मिरा इज्ज़ गुनाह

तेरी रहमत का इशारा है निदामत मेरी

लो तबस्सुम भी शरीक-ए-निगह-ए-नाज़ हुआ

आज कुछ और बढ़ा दी गई क़ीमत मेरी

फ़ैज़ यक लम्हा-ए-दीदार सलामत 'फ़ानी'

ग़म कि हर रोज़ है बढ़ती हुई दौलत मेरी

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