ऐ बे-ख़ुदी ठहर कि बहुत दिन गुज़र गए
ऐ बे-ख़ुदी ठहर कि बहुत दिन गुज़र गए
मुझ को ख़याल-ए-यार कहीं ढूँडता न हो
साहिल पे जा लगेगी यूँही कश्ती-ए-हयात
अपना ख़ुदा तो है जो नहीं ना-ख़ुदा न हो
अच्छा हिजाब है कि जब आते हैं ख़्वाब में
फिर फिर के देखते हैं कोई देखता न हो
दिल ही नहीं है जिस में न हो दर्द इश्क़ का
वो दर्द ही नहीं है जो हर दम सिवा न हो
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