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अब उन्हें अपनी अदाओं से हिजाब आता है - फ़ानी बदायुनी कविता - Darsaal

अब उन्हें अपनी अदाओं से हिजाब आता है

अब उन्हें अपनी अदाओं से हिजाब आता है

चश्म-ए-बद-दूर दुल्हन बन के शबाब आता है

हिज्र में भी मुझे इम्दाद-ए-अजल है दरकार

मेरी तुर्बत पे न आ तुझ से हिजाब आता है

दीद आख़िर है उलट दीजिए चेहरे से नक़ाब

आज मुश्ताक़ के चेहरे पे नक़ाब आता है

किस तरफ़ जोश-ए-करम तेरी निगाहें उट्ठीं

कौन महशर में सज़ा-वार-ए-इताब आता है

मौत की नींद भी अब चैन से सोना मालूम

कि जनाज़े पे वो ग़ारत-गर-ए-ख़्वाब आता है

दिल को इस तरह ठहर जाने की आदत तो न थी

क्यूँ अजल क्या मिरे नामे का जवाब आता है

जल्वा-ए-रंग है नैरंग-ए-तक़ाज़ा-ए-निगाह

कोई मजबूर तमाशा-ए-सराब आता है

हो गया ख़ून तिरे हिज्र में दिल का शायद

अब तसव्वुर भी तिरा नक़्श-बर-आब आता है

मिलती जुलती है मिरी उम्र-ए-दो-रोज़ा 'फ़ानी'

जी भर आता है अगर ज़िक्र-ए-हबाब आता है

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