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आह से या आह की तासीर से - फ़ानी बदायुनी कविता - Darsaal

आह से या आह की तासीर से

आह से या आह की तासीर से

जी बहल जाता किसी तदबीर से

अब से ग़म सहने की आदत ही सही

सुल्ह कर लें लाओ चर्ख़-ए-पीर से

जब्र को क्यूँकर न समझूँ इख़्तियार

तुम ने बाँधा है मुझे ज़ंजीर से

काम अब उस तदबीर पर है मुनहसिर

वास्ता जिस को न हो तक़दीर से

उस निगाह-ए-नाज़ का अल्लाह रे फ़ैज़

निस्बतें हैं ज़ख़्म-ए-दिल को तीर से

होशियार ओ शोख़-ए-बे-परवा-ख़िराम

बच के मेरी ख़ाक-ए-दामन-गीर से

इश्क़-ए-'फ़ानी' उस पे अपनी ये बिसात

खेलती हैं बिजलियाँ तस्वीर से

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