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या रब मिरी हयात से ग़म का असर न जाए - फ़ना निज़ामी कानपुरी कविता - Darsaal

या रब मिरी हयात से ग़म का असर न जाए

या रब मिरी हयात से ग़म का असर न जाए

जब तक किसी की ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ सँवर न जाए

वो आँख क्या जो आरिज़ ओ रुख़ पर ठहर न जाए

वो जल्वा क्या जो दीदा ओ दिल में उतर न जाए

मेरे जुनूँ को ज़ुल्फ़ के साए से दूर रख

रस्ते में छाँव पा के मुसाफ़िर ठहर न जाए

मैं आज गुलसिताँ में बुला लूँ बहार को

लेकिन ये चाहता हूँ ख़िज़ाँ रूठ कर न जाए

पैदा हुए हैं अब तो मसीहा नए नए

बीमार अपनी मौत से पहले ही मर न जाए

कर ली है तौबा इस लिए वाइज़ के सामने

इल्ज़ाम-ए-तिश्नगी मिरे साक़ी के सर न जाए

साक़ी पिला शराब मगर ये रहे ख़याल

आलाम-ए-रोज़गार का चेहरा उतर न जाए

मैं उस के सामने से गुज़रता हूँ इस लिए

तर्क-ए-तअल्लुक़ात का एहसास मर न जाए

मसरूर-ए-दीद-ए-हुस्न है इस वास्ते 'फ़ना'

दुनिया के ऐब पर कभी मेरी नज़र न जाए

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