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तू फूल की मानिंद न शबनम की तरह आ - फ़ना निज़ामी कानपुरी कविता - Darsaal

तू फूल की मानिंद न शबनम की तरह आ

तू फूल की मानिंद न शबनम की तरह आ

अब के किसी बे-नाम से मौसम की तरह आ

हर मर्तबा आता है मह-ए-नौ की तरह तू

इस बार ज़रा मेरी शब-ए-ग़म की तरह आ

हल करने हैं मुझ को कई पेचीदा मसाइल

ऐ जान-ए-वफ़ा गेसू-ए-पुर-ख़म की तरह आ

ज़ख़्मों को गवारा नहीं यक-रंगी-ए-हालात

नश्तर की तरह आ कभी मरहम की तरह आ

नज़दीकी ओ दूरी की कशाकश को मिटा दे

इस जंग में तू सुल्ह के परचम की तरह आ

माना कि मिरा घर तिरी जन्नत तो नहीं है

दुनिया में मिरी लग़्ज़िश-ए-आदम की तरह आ

तू कुछ तो मिरे ज़ब्त-ए-मोहब्बत का सिला दे

हंगामा-ए-फ़ना दीदा-ए-पुर-नम की तरह आ

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