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हम आगही-ए-इश्क़ का अफ़्साना कहेंगे - फ़ना निज़ामी कानपुरी कविता - Darsaal

हम आगही-ए-इश्क़ का अफ़्साना कहेंगे

हम आगही-ए-इश्क़ का अफ़्साना कहेंगे

कुछ अक़्ल के मारे हमें दीवाना कहेंगे

रहता है वहाँ ज़िक्र-ए-तुहूर-ओ-मय-ए-कौसर

हम आज से काबे को भी मय-ख़ाना कहेंगे

उनवान बदल देंगे फ़क़त आप की ख़ातिर

हम जब भी कहेंगे यही अफ़्साना कहेंगे

परवाने को हम शम्अ समझते हैं सर-ए-शाम

हंगाम-ए-सहर शम्अ को परवाना कहेंगे

सर रख के तिरे पाँव पे हम करते हैं शिकवा

कुछ लोग इसे सज्दा-ए-शुकराना कहेंगे

बन जाएगा अल्लाह का घर ख़ुद ही किसी दिन

फ़िलहाल 'फ़ना' दिल को सनम-ख़ाना कहेंगे

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