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ये तमन्ना है कि इस तरह मुसलमाँ होता - फ़ना बुलंदशहरी कविता - Darsaal

ये तमन्ना है कि इस तरह मुसलमाँ होता

ये तमन्ना है कि इस तरह मुसलमाँ होता

मैं तिरे हुस्न पे सौ जान से क़ुर्बां होता

आलम-ए-जोश-ए-जुनूँ में जो अदा होती नमाज़

सर मिरा सर कहाँ होता दर-ए-जानाँ होता

कुछ तमन्ना है तो बस ये है मोहब्बत में मुझे

मेरे हाथों में मिरे यार का दामन होता

तू अगर अपना बना लेता मुझे मेरे सनम

क्यूँ मोहब्बत मिरा चाक-ए-गरेबाँ होता

सब करिश्मा है फ़क़त रंग-ए-दुई का वर्ना

मज़हब-ए-पीर-ए-मुगाँ मुशरिब-ए-रिंदाँ होता

न दिखाते मुझे जल्वा मगर इतना करते

आप का ग़म मिरी तस्कीन का सामाँ होता

थाम कर मैं तिरे दामन का 'फ़ना' हो जाता

काश इस तरह मुकम्मल मिरा ईमाँ होता

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