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तेरी नज़रों पे तसद्दुक़ आज अहल-ए-होश हैं - फ़ना बुलंदशहरी कविता - Darsaal

तेरी नज़रों पे तसद्दुक़ आज अहल-ए-होश हैं

तेरी नज़रों पे तसद्दुक़ आज अहल-ए-होश हैं

जान-ए-जाँ तेरी निगाहें मय-कदा-बर-दोश हैं

इश्क़ में अहल-ए-वफ़ा कितने अज़िय्यत-कोश हैं

ख़ून दिल का हो रहा है लब मगर ख़ामोश हैं

ऐ निगाह-ए-शौक़ किस मंज़िल में ले आई मुझे

दोनों आलम जल्वा-गाह-ए-यार में रू-पोश हैं

मुझ को तन्हा देखने वाले न समझें राज़-ए-इश्क़

मेरी तन्हाई के लम्हे यार के आग़ोश हैं

'सरमद'-ओ-'मंसूर'-ओ-'शिब्ली' की नज़र से देखिए

होश वाले हैं वही दुनिया में जो बेहोश हैं

लन-तरानी की सदा पर मुस्कुराया था कोई

जितने ज़र्रे तूर में थे आज तक बेहोश हैं

ऐ 'फ़ना' बादा-कशी में ये उन्ही का है करम

उन की मस्त आँखों से पी कर भी सरापा होश हैं

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