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निकले वो फूल बन के तिरे गुल्सिताँ से हम - फ़ना बुलंदशहरी कविता - Darsaal

निकले वो फूल बन के तिरे गुल्सिताँ से हम

निकले वो फूल बन के तिरे गुल्सिताँ से हम

महका दिया फ़ज़ाओं को गुज़रे जहाँ से हम

अब तो यही हरीम-ए-मोहब्बत है ऐ सनम

जाएँ कहाँ अब उठ के तिरे आस्ताँ से हम

दुनिया में अब कहीं भी ठहरती नहीं नज़र

तुझ सा हसीन लाएँ तो लाएँ कहाँ से हम

दिल ले के जिस ने दर्द-ए-मोहब्बत अता किया

माँगेंगे अब दवा भी उसी मेहरबाँ से हम

दामन में कुछ तो डाल दे अपने करम की भीक

दामन तही न जाएँगे उस आस्ताँ से हम

तेरा करम रहा जो रह-ए-इश्क़ में सनम

इक रोज़ आ मिलेंगे तिरे कारवाँ से हम

लिक्खी हुई थी क़ैद-ए-अनासिर नसीब में

ले कर चले हैं अपना क़फ़स आशियाँ से हम

राह-ए-जुनूँ में खिलने लगे आशिक़ी कि फूल

उन के करम के साए में गुज़रे जहाँ से हम

ठुकराएँ या नवाज़ लें वो हम को ऐ 'फ़ना'

शिकवा कभी करेंगे न अपनी ज़बाँ से हम

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