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मिरे दाग़-ए-दिल वो चराग़ हैं नहीं निस्बतें जिन्हें शाम से - फ़ना बुलंदशहरी कविता - Darsaal

मिरे दाग़-ए-दिल वो चराग़ हैं नहीं निस्बतें जिन्हें शाम से

मिरे दाग़-ए-दिल वो चराग़ हैं नहीं निस्बतें जिन्हें शाम से

उन्हें तू ही आ के बुझाएगा ये जले हैं तेरे ही नाम से

मैं हूँ एक आशिक़-ए-बे-नवा तू नवाज़ अपने पयाम से

ये तिरी रज़ा पे तिरी ख़ुशी तू पुकार ले किसी नाम से

मैं तो गुम हूँ तेरी तलाश में मुझे कौन जाने तिरे सिवा

कोई कैसे महरम-ए-राज़ हो तिरी आशिक़ी के मक़ाम से

तिरा इश्क़ है मिरी ज़िंदगी तिरा ज़िक्र है मिरी बंदगी

तुझे याद करता हूँ मैं सदा मुझे काम है इसी काम से

कभी मय-कदे पे जो दिल रहा तिरे आशिक़ों की नज़र पड़े

उसे कहिए बादा-ए-मा'रिफ़त जो छलक पड़े अभी जाम से

कहीं उठ के जाऊँ मैं क्यूँ 'फ़ना' कि पयाम उस का मिला मुझे

जो मिला कभी तो मिलेगा वो मुझे दर्द-ए-दिल के मक़ाम से

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