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मक़ाम-ए-होश से गुज़रा मकाँ से ला-मकाँ पहुँचा - फ़ना बुलंदशहरी कविता - Darsaal

मक़ाम-ए-होश से गुज़रा मकाँ से ला-मकाँ पहुँचा

मक़ाम-ए-होश से गुज़रा मकाँ से ला-मकाँ पहुँचा

तुम्हारे इश्क़ में दीवाना-ए-मंज़िल कहाँ पहुँचा

नज़र की मंज़िलों में बस तुम्हीं हुस्न-ए-मुजस्सम थे

मता-ए-आरज़ू ले कर मैं उल्फ़त में जहाँ पहुँचा

उसी ने इश्क़ बन कर दो-जहाँ को फूँक डाला है

वो शो'ला जो तिरी नज़रों से दिल के दरमियाँ पहुँचा

जुनूँ ज़ाहिर हुआ रुख़ पर ख़ुदी पर बे-ख़ुदी छाई

ब-क़ैद-ए-होश मैं जब भी क़रीब-ए-आस्ताँ पहुँचा

तुम अपनी जुस्तुजू में ये मिरा शौक़-ए-तलब देखो

तुम्हारे इश्क़ में लुट कर भी तुम तक जान-ए-जाँ पहुँचा

तअ'ल्लुक़ तोड़ कर जान-ए-जहाँ सारे ज़माने से

मैं पहुँचा था जहाँ मुझ को तिरी ख़ातिर वहाँ पहुँचा

'फ़ना' वो जल्वा-गर होने लगे हर बज़्म-ए-ईमाँ में

मिरा दिल ले के जब मुझ को सर-ए-कू-ए-बुताँ पहुँचा

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