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माइल-ब-करम मुझ पर हो जाएँ तो अच्छा हो - फ़ना बुलंदशहरी कविता - Darsaal

माइल-ब-करम मुझ पर हो जाएँ तो अच्छा हो

माइल-ब-करम मुझ पर हो जाएँ तो अच्छा हो

मक़्बूल मिरे सज्दे हो जाएँ तो अच्छा हो

इस दश्त-नवर्दी से पीछा तो कहीं छूटे

हम कूचा-ए-जानाँ में मर जाएँ तो अच्छा हो

सर हो दर-ए-जानाँ पे दम अपना निकल जाए

ये काम मोहब्बत में कर जाएँ तो अच्छा हो

यूँ तो सभी आए हैं दफ़नाने मुझे लेकिन

वो भी मिरी मय्यत पे आ जाएँ तो अच्छा हो

फिर दर्द-ए-जुदाई का झगड़ा न रहे कोई

हम नाम तिरा ले कर मर जाएँ तो अच्छा हो

देखें न किसी को हम फिर देख के रुख़ तेरा

दीदार तिरा कर के मर जाएँ तो अच्छा हो

रह जाए मोहब्बत का दुनिया में भरम कुछ तो

दो फूल ही तुर्बत पे धर जाएँ तो अच्छा हो

धड़का लगा रहता है हर वक़्त बलाओं का

हम साथ नशेमन के जल जाएँ तो अच्छा हो

बदनाम ही करने को आएँ वो मगर आएँ

वो इतना करम मुझ पर कर जाएँ तो अच्छा हो

जा सकते हैं जाने को हम चल के 'फ़ना' देखें

वो ख़ुद हमें महफ़िल में बुलवाएँ तो अच्छा हो

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