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हुस्न-ए-बुताँ का इश्क़ मेरी जान हो गया - फ़ना बुलंदशहरी कविता - Darsaal

हुस्न-ए-बुताँ का इश्क़ मेरी जान हो गया

हुस्न-ए-बुताँ का इश्क़ मेरी जान हो गया

ये कुफ़्र अब तो हासिल-ए-ईमान हो गया

ऐ ज़ब्त-ए-दिल ये कैसी क़यामत गुज़र गई

दीवानगी में चाक गरेबान हो गया

वो बन सँवर के फिर मिरी महफ़िल में आ गए

बैठे-बिठाए हश्र का सामान हो गया

कर के सिंघार आए वो ऐसी अदा के साथ

आईना उन को देख कर हैरान हो गया

देखा जो उस सनम को तो महसूस ये हुआ

जल्वा ख़ुदा का सूरत-ए-इंसान हो गया

सब मेरा इश्क़ देख के लेते हैं तेरा नाम

मैं भी तिरे जमाल की पहचान हो गया

पूजा करेंगे उस की 'फ़ना' हम तमाम उम्र

वो बुत हमारे वास्ते भगवान हो गया

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