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हर घड़ी पेश-ए-नज़र इश्क़ में क्या क्या न रहा - फ़ना बुलंदशहरी कविता - Darsaal

हर घड़ी पेश-ए-नज़र इश्क़ में क्या क्या न रहा

हर घड़ी पेश-ए-नज़र इश्क़ में क्या क्या न रहा

मेरा दिल बस तिरी तस्वीर का दीवाना रहा

ये सितम मुझ पे मिरे इश्क़ का अच्छा न रहा

तुझ को देखा तो मिरा दिल मिरा अपना न रहा

ऐसा मदहोश किया तेरी तजल्ली ने मुझे

तूर भी मेरे लिए वज्ह-ए-तमाशा न रहा

यूँ तिरे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा पे अदा की है नमाज़

सर में का'बा के लिए एक भी सज्दा न रहा

ज़िंदगानी तुझे ले जाऊँ में किस के दर पर

दिल में हसरत न रही सर में भी सौदा न रहा

वो न काबे में मिला है न सनम-ख़ाने में

क्या क़यामत है कि वो शोख़ किसी का न रहा

इब्तिदा ये थी कि मैं अपना समझता था उन्हें

इंतिहा ये है कि मैं आप भी अपना न रहा

वो पराया था 'फ़ना' इस का गिला क्या कीजे

ग़म तो ये है कि मैं ख़ुद आप भी अपना न रहा

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