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हाँ वही इश्क़-ओ-मोहब्बत की जिला होती है - फ़ना बुलंदशहरी कविता - Darsaal

हाँ वही इश्क़-ओ-मोहब्बत की जिला होती है

हाँ वही इश्क़-ओ-मोहब्बत की जिला होती है

जो इबादत दर-ए-जानाँ पे अदा होती है

जो गिरफ़्तार-ए-मोहब्बत हैं ये उन से पूछो

नाज़ क्या चीज़ है क्या चीज़ अदा होती है

उन की नज़रों की हक़ीक़त को कोई क्या जाने

उन की नज़रों में हर इक ग़म की दवा होती है

क्यूँ न चेहरे पे मलूँ ख़ाक-ए-दर-ए-यार को मैं

यही वो ख़ाक है जो ख़ाक-ए-शिफ़ा होती है

राएगाँ सज्दे भी हो जाते हैं मक़्बूल-ए-करम

शामिल-ए-हाल अगर उन की रज़ा होती है

जाने क्या चीज़ छुपी है तिरे जल्वों में सनम

सारी दुनिया तेरे जल्वों पे फ़िदा होती है

मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र का तालिब

तेरे कूचे में मरीज़ों को शिफ़ा होती है

उन के मयख़ाने को छू आती है जब फ़स्ल-ए-बहार

फूल खिल जाते हैं मस्ती में हवा होती है

ऐ 'फ़ना' मिलता है आशिक़ को बक़ा का पैग़ाम

ज़िंदगी जब रह-ए-उल्फ़त में फ़ना होती है

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