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ऐ सनम तुझ को हम भुला न सके - फ़ना बुलंदशहरी कविता - Darsaal

ऐ सनम तुझ को हम भुला न सके

ऐ सनम तुझ को हम भुला न सके

दिल से दाग़-ए-वफ़ा मिटा न सके

अल्लाह अल्लाह उस आस्ताँ की कशिश

सर झुकाया तो सर उठा न सके

मिट गए शौक़-ए-दीद में लेकिन

आप जल्वा हमें दिखा न सके

तेरी चाहत में दर्द वो पाया

हम ज़माने में चैन पा न सके

दे के दिल तुम को जान भी दे दी

फिर भी अपना तुम्हें बना न सके

जब से निस्बत हुई तिरे दर से

हम किसी दर पे सर झुका न सके

इश्क़ में ये अजब तमाशा है

उन को पाया तो ख़ुद को पा न सके

ऐसी बदली हवा ज़माने की

ज़ख़्म सीने के मुस्कुरा न सके

तुम 'फ़ना' की लहद पे बा'द-ए-फ़ना

आ के दो फूल भी चढ़ा न सके

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