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मज़दूर औरतें - फख्र ज़मान कविता - Darsaal

मज़दूर औरतें

वो जा रही हैं सरों पे पत्थर

उठाए मज़दूर औरतें कुछ

ये खुरदुरे हाथ मैले पाँव

जमी हैं होंटों पे पपड़ियाँ सी

और पसीने में हैं शराबोर

सुलगती दोपहर में वो मिल कर

एक दीवार चुन रही हैं

हिसार-ए-संगीं बनेगा कोई

ये देख कर हाल उन का मुझ को

ख़याल रह रह के आ रहा है

कहाँ हैं वो मरमरीं सी बाहें

वो गुदगुदे हाथ नर्म-ओ-नाज़ुक

वो गेसू-ए-अम्बरीं-ओ-मुश्कीं

वो तीर-ए-मिज़्गाँ कमान-ए-अबरू

वो ला'ल लब और वो रू-ए-ज़ेबा

वो नाज़नीं औरतें कहाँ हैं

वो मह-जबीं औरतें कहाँ हैं

वो जिन की तारीफ़ करते करते

अदीब-ओ-शाइर नहीं हैं थकते

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