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कुछ बात नहीं जिस्म अगर मेरा जला है - फख्र ज़मान कविता - Darsaal

कुछ बात नहीं जिस्म अगर मेरा जला है

कुछ बात नहीं जिस्म अगर मेरा जला है

सद-शुक्र कि उस बज़्म से शोला तो उठा है

माना कि मिरे लॉन की फिर सब्ज़ हुई घास

इस मेंह में पड़ोसी का मकाँ भी तो गिरा है

सर्दी है कि इस जिस्म से फिर भी नहीं जाती

सूरज है कि मुद्दत से मिरे सर पर खड़ा है

हर सम्त ख़मोशी है मगर कहते हैं कुछ लोग

इस शहर में इक शोर क़यामत का बपा है

दीवार से गो ईंट खिसक कर पड़ी सर पर

सद-शुक्र कि रौज़न कोई ज़िंदाँ में खुला है

अब देखिए किस राह में दीवार बनेगा

ढलवान पे इक संग-ए-गिराँ चल तो पड़ा है

इस साल मिरे खेत में ओले भी पड़े हैं

इस साल मिरी फ़स्ल को कीड़ा भी लगा है

आँखें मिरी रौशन रहें ख़ुश-हाल रहूँ मैं

इक अंधी भिकारन की मिरे हक़ में दुआ है

मैं भूक से बेहाल हूँ तो सेर-शिकम है

क्या मेरा ख़ुदा वो नहीं जो तेरा ख़ुदा है

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