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चेहरे से कब अयाँ है मिरे इज़्तिरार भी - फख़्र अब्बास कविता - Darsaal

चेहरे से कब अयाँ है मिरे इज़्तिरार भी

चेहरे से कब अयाँ है मिरे इज़्तिरार भी

लेकिन मैं कर रहा हूँ तिरा इंतिज़ार भी

शायद तुझे हो दस्तरस अपने वजूद पर

मुझ को तो इस नज़र पे नहीं इख़्तियार भी

मिलने लगे हैं अब तो ख़ुशी के लिबास में

ग़म-हा-ए-ज़िंदगी का है कोई शुमार भी

हो लाख ख़ूब-रू कोई अपने तईं मगर

होता है अक्स-ओ-आइने पर इंहिसार भी

यकजा हुई हैं हुस्न की सब उस में ख़ूबियाँ

चेहरे पे ताज़गी है नज़र में ख़ुमार भी

लगता है जान-बूझ के ऐसा किया गया

तू ने बनाई चीज़ कोई पाएदार भी

महज़ूज़ हम भी होंगे जो फ़ुर्सत कहीं मिले

गुलशन भी है गुलाब भी रंग-ए-बहार भी

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