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इन्नोसेंस - फ़ाख़िरा बतूल कविता - Darsaal

इन्नोसेंस

मिरे बच्चे ने जब मुझ से कहा मम्मा

ज़रा जुगनू मुझे ला दो

मुझे तितली के रंगों को भी छूना है

सितारे आसमाँ पर ही उगे हैं क्यूँ

ज़मीं पर क्यूँ नहीं आते

मुझे बस चाँद ला दो उस से खेलूँगा

मैं चौंक उट्ठी

यही कुछ मैं ने अपनी माँ से पूछा था

मिरा मा'सूम सा बचपन

जो मुट्ठी से फिसल कर खो गया शायद

मिरा बच्चा जो मेरा आज है

और आने वाला इक हसीं कल है

लहू में उस की बातों से ही हलचल है

ये मेरा क़ीमती पल है

मिरा बच्चा हसीं ता'बीर बन कर सामने है और

माज़ी ख़्वाब लगता है

तो क्या मैं ख़्वाब से आगे निकल आई

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