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रात गहरी है मगर एक सहारा है मुझे - फ़ैज़ी कविता - Darsaal

रात गहरी है मगर एक सहारा है मुझे

रात गहरी है मगर एक सहारा है मुझे

ये मिरी आँख का आँसू ही सितारा है मुझे

मैं किसी ध्यान में बैठा हूँ मुझे क्या मालूम

एक आहट ने कई बार पुकारा है मुझे

आँख से गर्द हटाता हूँ तो क्या देखता हूँ

अपने बिखरे हुए मलबे का नज़ारा है मुझे

ऐ मिरे लाडले ऐ नाज़ के पाले हुए दिल

तू ने किस कू-ए-मलामत से गुज़ारा है मुझे

मैं तो अब जैसे भी गुज़रेगी गुज़ारूँगा यहाँ

तुम कहाँ जाओगे धड़का तो तुम्हारा है मुझे

तू ने क्या खोल के रख दी है लपेटी हुई उम्र

तू ने किन आख़िरी लम्हों में पुकारा है मुझे

मैं कहाँ जाता था उस बज़्म-ए-नज़र-बाज़ाँ में

लेकिन अब के तिरे अबरू का इशारा है मुझे

जाने मैं कौन था लोगों से भरी दुनिया में

मेरी तन्हाई ने शीशे में उतारा है मुझे

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