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कोई नाम है न कोई निशाँ मुझे क्या हुआ - फ़ैज़ी कविता - Darsaal

कोई नाम है न कोई निशाँ मुझे क्या हुआ

कोई नाम है न कोई निशाँ मुझे क्या हुआ

मैं बिखर गया हूँ कहाँ कहाँ मुझे क्या हुआ

किसे ढूँडता हूँ मैं अपने क़़ुर्ब-ओ-जवार में

ऐ फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-दोस्ताँ मुझे क्या हुआ

ये कहाँ पड़ा हूँ ज़मीं के गर्द-ओ-ग़ुबार में

वो कहाँ गया मिरा आसमाँ मुझे क्या हुआ

कोई रात थी कोई चाँद था कई लोग थे

वो अजब समाँ था मगर वहाँ मुझे क्या हुआ

मिरे रू-ब-रू मुझे मैं दिखाई नहीं दिया

मिरे आईने मिरे राज़-दाँ मुझे क्या हुआ

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