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जानता हूँ कि कई लोग हैं बेहतर मुझ से - फ़ैज़ी कविता - Darsaal

जानता हूँ कि कई लोग हैं बेहतर मुझ से

जानता हूँ कि कई लोग हैं बेहतर मुझ से

फिर भी ख़्वाहिश है कि देखो कभी मिल कर मुझ से

सोचता क्या हूँ तिरे बारे में चलते चलते

तू ज़रा पूछना ये बात ठहर कर मुझ से

मैं यही सोच के हर हाल में ख़ुश रहता हूँ

रूठ जाए न कहीं मेरा मुक़द्दर मुझ से

मुझ पे मत छोड़ कि फिर ब'अद में पछताएगा

फ़ैसले ठीक ही हो जाते हैं अक्सर मुझ से

रात वो ख़ून रुलाती है उदासी दिल की

रोने लगता है लिपट कर मिरा बिस्तर मुझ से

अहद-ए-आग़ाज़-ए-मोहब्बत तिरे अंजाम की ख़ैर

अब उठाए नहीं उठता है ये पत्थर मुझ से

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