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इस लिए दिल बुरा किया ही नहीं - फ़ैज़ी कविता - Darsaal

इस लिए दिल बुरा किया ही नहीं

इस लिए दिल बुरा किया ही नहीं

ज़िंदगी मेरा फ़ैसला ही नहीं

इस क़दर शोर था मिरे सर में

अपनी आवाज़ पर रुका ही नहीं

बड़ी ख़्वाहिश थी मुझ को होने की

हो गया हूँ तो कुछ हुआ ही नहीं

ज़ुल्म करता हूँ ज़ुल्म सहता हूँ

मैं कभी चैन से रहा ही नहीं

पड़ गया है ख़ुदा से काम मुझे

और ख़ुदा का कोई पता ही नहीं

तोड़ डालो ये हाथ पाँव मिरे

जिस्म का तो मुक़ाबला ही नहीं

तुम कहाँ हो ज़रा सदा तो दो

इस से आगे तो रास्ता ही नहीं

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