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सामने होते थे पहले जिस क़दर होते थे हम - फ़ैज़ान हाशमी कविता - Darsaal

सामने होते थे पहले जिस क़दर होते थे हम

सामने होते थे पहले जिस क़दर होते थे हम

जब ये नज़्ज़ारे नहीं थे तब नज़र होते थे हम

तब नया मिट्टी से उट्ठा था मोहब्बत का ख़मीर

हर किसी कूज़े में दो इक घूँट भर होते थे हम

जिस परी पर मर मिटे थे वो परी-ज़ादी न थी

ब'अद में जाना कि उस के दोनों पर होते थे हम

तब किसी दीवार से कोई तआरुफ़ था नहीं

उन दिनों की बात है जब दर-ब-दर होते थे हम

सामने आते थे जब तो ढूँडते थे कश्तियाँ

चार आँखों से बनी इक झील पर होते थे हम

यूँ बना देते थे जैसे शेर हो जाते हैं अब

हर्फ़-ए-कुन का भी कभी दस्त-ए-हुनर होते थे हम

इक घड़ी ऐसी भी आती थी मुलाक़ातों के बीच

तुम उधर होते थे जिस के और उधर होते थे हम

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