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अपने ख़ला में ला कि ये तुम को दिखा रहा हूँ मैं - फ़ैज़ान हाशमी कविता - Darsaal

अपने ख़ला में ला कि ये तुम को दिखा रहा हूँ मैं

अपने ख़ला में ला कि ये तुम को दिखा रहा हूँ मैं

वो जो ख़ला-नवर्द हैं उन के लिए ख़ला हूँ मैं

इश्क़ हुआ नहीं मुझे इश्क़ को हो गया हूँ मैं

उतना नहीं बचा हुआ जितना पड़ा हुआ हूँ मैं

बन तो गया हूँ कूज़ा-गर घूम के तेरे चाक पर

जैसा बना रहा था तू वैसा नहीं बना हूँ मैं

मिट्टी यहाँ की ठीक है मिट्टी से कुछ गिला नहीं

आँखें मिला मिला के बस पानी बदल रहा हूँ मैं

भेस दिए का धार कर तेरी दुआ सँवार कर

बीच में ताक़चा है और दोनों तरफ़ खड़ा हूँ मैं

रूह मिली है या नहीं इतना मैं जानता नहीं

तेरे से एक जिस्म को पहले भी मिल चुका हूँ मैं

बारा बजे के ब'अद इक दिन को निकालते हुए

देखा तो जा चुका हूँ पर पकड़ा नहीं गया हूँ मैं

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