काँच के शहर में पत्थर न उठाओ यारो

काँच के शहर में पत्थर न उठाओ यारो

मय-कदा है इसे मक़्तल न बनाओ यारो

सहन-ए-मक़्तल में भी मय-ख़ाना सजाओ यारो

शब के सन्नाटे में हंगामा मचाओ यारो

ज़िंदगी बिकने चली आई है बाज़ारों में

इस जनाज़े के भी कुछ दाम लगाओ यारो

जिन की शह-ए-रग का लहू फूल की अंगड़ाई था

उन को अब हाल-ए-गुलिस्ताँ न बताओ यारो

फैलते साया-ए-शब में न चलो रुक रुक के

बुझती राहों को कफ़-ए-पा से सजाओ यारो

बज़्म-ए-याराँ में वो कुछ सोच के आया होगा

ऐसे दीवाने को ठोकर न लगाओ यारो

रात ढल जाएगी मय-ख़ाना सँभल जाएगा

कोई नग़्मा कोई पैग़ाम सुनाओ यारो

ज़िंदगी रेंगती फिरती है यहाँ कासा-ब-कफ़

उस को अब वक़्त का आईना दिखाओ यारो

अब धुँदलकों में भी है ताज़ा उजालों का 'ख़याल'

शब की दीवार सलीक़े से गिराओ यारो

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