जब तक मिज़ाज-ए-दोस्त में कुछ बरहमी रही
जब तक मिज़ाज-ए-दोस्त में कुछ बरहमी रही
गोया बुझी बुझी सी मिरी ज़िंदगी रही
जिस पर निगाह-ए-लुत्फ़-ओ-करम आप की रही
हैरत से हर निगाह उसे देखती रही
गो मैं रहा कशाकश-ए-दौराँ से हम-कनार
लेकिन मिरे लबों पे हँसी खेलती रही
लाया है इश्क़ ने मुझे ऐसे मक़ाम पर
ख़ुद-आगही रही न ख़ुदा-आगही रही
जोश-ए-जुनूँ ने मंज़िल-ए-मक़्सूद पा लिया
अक़्ल-ए-सलीम देखती ही देखती रही
सब कुछ मुझे 'ख़याल' की दुनिया में मिल गया
लेकिन तुम्हारे हुस्न-ए-नज़र की कमी रही
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