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दिन उतरते ही नई शाम पहन लेता हूँ - फ़ैज़ ख़लीलाबादी कविता - Darsaal

दिन उतरते ही नई शाम पहन लेता हूँ

दिन उतरते ही नई शाम पहन लेता हूँ

मैं तिरी यादों का एहराम पहन लेता हूँ

मेरे घर वाले भी तकलीफ़ में आ जाते हैं

मैं जो कुछ देर को आराम पहन लेता हूँ

रात को ओढ़ के सो जाता हूँ दिन-भर की थकन

सुब्ह को फिर से कई काम पहन लेता हूँ

जब भी परदेस में याद आता है घर का नक़्शा

मैं तसव्वुर में दर-ओ-बाम पहन लेता हूँ

एक चाँदी की अँगूठी के हवाले से फ़क़त

अपनी उँगली में तिरा नाम पहन लेता हूँ

'फ़ैज़' यूँ रखता हूँ मैं उस की मोहब्बत का भरम

उस के हिस्से के भी इल्ज़ाम पहन लेता हूँ

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