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मामूली बे-कार समझने वाले मुझ से दूर रहें - फ़ैज़ आलम बाबर कविता - Darsaal

मामूली बे-कार समझने वाले मुझ से दूर रहें

मामूली बे-कार समझने वाले मुझ से दूर रहें

मुझ को इक आज़ार समझने वाले मुझ से दूर रहें

पागल-पन में आ कर पागल कुछ भी तो कर सकता है

ख़ुद को इज़्ज़त-दार समझने वाले मुझ से दूर रहें

हँस पड़ता हूँ जब कोई हालात का रोना रोता है

जीवन को दुश्वार समझने वाले मुझ से दूर रहें

मैं वाक़िफ़ हूँ रंगों की हर रंग बदलती फ़ितरत से

रौनक़ को बाज़ार समझने वाले मुझ से दूर रहें

मजनूँ और शाहों में कुछ दिन मैं भी उट्ठा बैठा हूँ

सहरा को गुलज़ार समझने वाले मुझ से दूर रहें

मंज़िल की ख़्वाहिश है जिन को आएँ मेरे साथ चलें

रस्तों को हमवार समझने वाले मुझ से दूर रहें

आँचल और मल्बूस पे जिन की आँखें चिपकी रहती हैं

उन को बा-क़िरदार समझने वाले मुझ से दूर रहें

'फ़ैज़-आलम-बाबर' ख़ुद भी यार है जाने किस किस का

यारों को मक्कार समझने वाले मुझ से दूर रहें

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