इश्क़-आबाद की शाम
जब सूरज ने जाते जाते
इश्क़-आबाद के नीले उफ़ुक़ से
अपने सुनहरी जाम में ढाली
सुर्ख़ी-ए-अव्वल शाम
और ये जाम
तुम्हारे सामने रख कर
तुम से किया कलाम
कहा प्रणाम
उठो
और अपने तन की सेज से उठ कर
इक शीरीं पैग़ाम
सब्त करो उस शाम
कनार-ए-जाम
किसी के नाम
शायद तुम ये मान गईं
और तुम ने
अपने लब-ए-गुलफ़ाम
किए अंजाम
किसी के नाम
कनार-ए-जाम
या शायद
तुम अपने तन की सेज पे सज कर
थीं यूँ महव-ए-आराम
कि रस्ता तकते तकते
बुझ गई शम-ए-जाम
इश्क़-आबाद के नीले उफ़ुक़ पर
ग़ारत हो गई शाम
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