मय-ख़ानों की रौनक़ हैं कभी ख़ानक़हों की
अपना ली हवस वालों ने जो रस्म चली है
दिल-दारि-ए-वाइज़ को हमीं बाक़ी हैं वर्ना
अब शहर में हर रिंद-ए-ख़राबात वली है
Mir Taqi Mir
Habib Jalib
Jaun Eliya
Ahmad Faraz
Parveen Shakir
Mohsin Naqvi
Javed Akhtar
Wasi Shah
Gulzar
Rahat Indori
Faiz Ahmad Faiz
Allama Iqbal
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(3475) Peoples Rate This
मुलाक़ात मिरी
जुदा थे हम तो मयस्सर थीं क़ुर्बतें कितनी
ये मौसम-ए-गुल गरचे तरब-ख़ेज़ बहुत है
याद-ए-ग़ज़ाल-चश्माँ ज़िक्र-ए-समन-अज़ाराँ
तन्हाई
नज़्म
मरसिए
ख़ुदा वो वक़्त न लाए
हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है
अगस्त1955
ख़ुशा ज़मानत-ए-ग़म
आज इक हर्फ़ को फिर ढूँडता फिरता है ख़याल