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यास - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कविता - Darsaal

यास

बरबत-ए-दिल के तार टूट गए

हैं ज़मीं-बोस राहतों के महल

मिट गए क़िस्सा-हा-ए-फ़िक्र-ओ-अमल!

बज़्म-ए-हस्ती के जाम फूट गए

छिन गया कैफ़-ए-कौसर-अो-तसनीम

ज़हमत-ए-गिर्या-ओ-बुका बे-सूद

शिकवा-ए-बख़्त-ए-ना-रसा बे-सूद

हो चुका ख़त्म रहमतों का नुज़ूल

बंद है मुद्दतों से बाब-ए-क़ुबूल

बे-नियाज़-ए-दुआ है रब्ब-ए-करीम

बुझ गई शम्-ए-आरज़ू-ए-जमील

याद बाक़ी है बे-कसी की दलील

इन्तिज़ार-ए-फ़ुज़ूल रहने दे

राज़-ए-उल्फ़त निबाहने वाले

बार-ए-ग़म से कराहने वाले

काविश-ए-बे-हुसूल रहने दे

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