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वासोख़्त - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कविता - Darsaal

वासोख़्त

सच है हमीं को आप के शिकवे बजा न थे

बे-शक सितम जनाब के सब दोस्ताना थे

हाँ जो जफ़ा भी आप ने की क़ाएदे से की

हाँ हम ही कारबंद-ए-उसूल-ए-वफ़ा न थे

आए तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबाँ

भूले तो यूँ कि जैसे कभी आश्ना न थे

क्यूँ दाद-ए-ग़म हमीं ने तलब की बुरा किया

हम से जहाँ में कुश्ता-ए-ग़म और क्या न थे

गर फ़िक्र-ए-ज़ख्म की तो ख़ता-वार हैं कि हम

क्यूँ महव-ए-मद्ह-ए-खूबी-ए-तेग़-ए-अदा न थे

हर चारागर को चारागरी से गुरेज़ था

वर्ना हमें जो दुख थे बहुत ला-दवा न थे

लब पर है तल्ख़ी-ए-मय-ए-अय्याम वर्ना 'फ़ैज़'

हम तल्ख़ी-ए-कलाम पे माइल ज़रा न थे

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